मेरे साथ अकसर रातों में ऐसा होता है, किसी सपने के वजह से आधी रात में नींद टूट जाती है, और मैं एकदम हड़बड़ा के उठ बैठता हूँ. नींद टूटने के बाद कुछ पल के लिए तो मुझे पता भी नहीं चल पाता कि मैं कहाँ हूँ, किस कमरे में हूँ, किसके घर में हूँ, किस शहर में हूँ? जब पूरे होश में आता हूँ तो समझ आता है कि मैं तपा मंडी के
कमरे में हूँ. ऐसा सिर्फ रातों में ही नहीं होता, दोपहर को भी जब कभी थका हुआ सो जाता हूँ और नींद खुलती है तो कुछ पल के लिए मैं पहचान ही नहीं पाता अपने इस कमरे को. मैं बड़े हैरानी से सामने की मेज, कुर्सी, टीवी, किताबों को देखता हूँ. सब चीज़ों को मैं इस तरह देखता हूँ जैसे इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं, कुछ पल के लिए लगता है मैं किसी अजनबी के कमरे में आ गया हूँ, ये सब...ये कमरा ये घर असली नहीं है, ये बस एक भ्रम है. असली तो मेरा घर है, मेरे शहर का मेरा वो घर. मन बड़ा बेचैन हो जाता है. बहुत से ख्याल आने लगते हैं, मेरा ये घर नहीं तो मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्यों अब तक रुका हुआ हूँ मैं इस शहर में और शहर के इस घर में, जो मुझे अजनबी सा लग रहा है? जो भी सोच कर आया था इस शहर, क्या मैंने वो पा लिया ? नहीं. तो फिर क्यों मैं यहाँ अब तक टिका हुआ हूँ. रात की आधी नींद में आधे होश में ये सारे सवाल हमेशा परेशान करते हैं मुझे. सिर्फ मेरे साथ ही नहीं, शायद घर से बाहर रह रहे अधिकतर लोगों के साथ ऐसा होता होगा, खासकर उन लोगों के साथ जो कुछ सपने लेकर दूसरे शहर आये थे और वो उन सपनों को पूरा नहीं कर पायें. उस वक़्त वापस घर लौटने की बात दिमाग में बहुत तेज़ी से घूमने लगती है, लेकिन मैं उस बात को मन के किसी भीतरी कोने में धकेल देता हूँ. मन के अन्दर से आवाज़ आती है, कि तुम बेवकूफी कर रहे हो, किस चीज़ का इंतजार है तुम्हें अब? जो तुम्हें चाहिए था वो अब तक नहीं मिला, और कितना इंतजार करोगे तुम? जाओ वापस लौट जाओ. मैं मन की इन आवाजों को अनसुना कर देता हूँ. शायद एक बार घर छूट जाने के बाद वापस लौटना आसान नहीं होता. हाँ, घर लौटना आसान होता भी होगा, लेकिन उन लोगों के लिए जो जिस मकसद से घर से दूसरे शहर आये थे, उन्होंने वो मकसद पूरा कर लिया हो. लेकिन मेरे जैसे लोगों के लिए घर लौटना आसान नहीं होता. यूँ खाली हाथ वापस लौटना कोई चाहता भी नहीं.
अब ये सोचना भी अब मुश्किल लगता है कि जब ग्यारह-बारह साल पहले मैं अपने शहर से निकला था पढ़ाई के लिए दूसरे शहर, तो मेरे पास मात्र दो बैग थे, और अब देखता हूँ इस घर में मैंने कितना सामान इकट्ठा कर रखा है. हैरानी होती है कि मैंने कितना कुछ जमा कर लिया है घर में. हॉस्टल का वो कमरा याद आता है, जहाँ सबसे पहले मैं रुका था. सरस्वती माँ, हनुमान जी की मूर्तियाँ, कुछ कपड़े, कुछ किताबें और मेरा एक टेपरिकॉर्डर, इनके अलावा मेरे हॉस्टल रूम में कुछ भी नहीं था. और उस समय से लेकरं अब तक ऐसा लगता है कि मैंने एक दूसरा घर बसा लिया है यहाँ. बहुत से लोगों को ये नार्मल लगता होगा, लेकिन मुझे हैरानी होती है, पता नहीं क्यों किस बात कि हैरानी. घर से निकले ग्यारह-बारह साल हो गए, और पता भी नहीं चला? वक़्त ऐसे ही तो बीतता है, नहीं...बीतता वक़्त नहीं, बीतते हम लोग हैं.
बारह साल पहले जब मैं दूसरे शहर आया था तो जाने क्या क्या मन में सोचा था. आँखों में जाने कितने सपने लिए हुए मैं चला था घर से. क्या हुआ उन सपनों? कुछ भी पता नहीं चल पाया. कैसे और क्यों वो इस कदर बेरहमी से टूट गए या कहूँ कि कुचले गए. मैं ये भी नहीं जानता. कुछ तो मेरी गलती रही थी और कुछ वक़्त और दोस्तों की मेहरबानी थी. बारह साल पहले दूसरे शहर में आया था, तब कुछ और बेशकीमती चीज़ें मेरे साथ थीं, जब मैं घर से चला था...जो तुमने मुझे दिया था....कुछ चिट्ठियाँ, तुम्हारे बेक किये हुए बिस्कुट, तुम्हारे दिए तोहफे जिनसे मेरा बैग भरा था, तुम्हारा प्यार और तुम...तुम मेरे साथ थी मेरे पास थी, जब मैं चला था अपने घर से दूर. क्या कहा था तुमने उस शाम जिस शाम मुझे जाना था. याद है? तुमने कहा था, तुम मुझसे दूर नहीं जा रहे, बल्कि मुझे पाने के लिए तुम पहला कदम उठाने जा रहे आज. आज सोचता हूँ तो लगता है जो भी मैं अपने साथ लेकर बारह साल पहले चला था किसी दूसरे शहर, सब कुछ तो छूट गया पीछे... तुम्हारा साथ, तुम्हारा प्यार.. सब कुछ जाने कहाँ पीछे छूट गया. इतने सामान मैंने इन बारह सालों में जमा कर लिए हैं, लेकिन फिर भी लगता है अकसर कितना खाली सा हो गया हूँ मैं.
रातों को नींद में अकसर मुझे आवाजें सुनाई देती है, लगता है तुम मेरे से बातें कर रही हो. जैसे उस रात हुआ था. हुआ कुछ भी नहीं था, लाइट कटी हुई थी, और मैं सोया हुआ था. खिड़की खुली थी, मुझे जाने क्यों ऐसा भ्रम होने लगा कि तुम उस खिड़की के पास खड़ी हो, और मेरे लिए वही गाना तुम गा रही हो जो तुम अक्सर गुनगुनाती थी.. “लग जा गले...”. मैं बिस्तर पर ही आँखें बंद किये लेटे रहा था. ये पागलपन है, लेकिन फिर भी जाने क्यों उस रात मुझे ये पक्का यकीन था, कि तुम कमरे में मौजूद हो, और ये डर भी था कि मैं जैसे ही अपनी आँखें खोलूँगा, तुम गायब हो जाओगी. और इसी डर से मैं अपनी आँखें नहीं खोल रहा था. तुम्हारी आवाज़ मुझे सुनाई दे रही थी, तुम्हारे कमरे में होने का एहसास था मुझे. लेकिन उस एहसास को टूटना था, वो टूट गया. अचानक से लाइट आई, और मेरी आँखें ना चाहते हुए भी खुल गयीं. कमरे में होने का तुम्हारा वो एहसास और तुम्हारी आवाज़ गायब हो गयी थी.
मुझे हमेशा ऐसा लगता है, जब भी मैं अकेले घर में रातों को रहता हूँ, तुम चुपके से मेरे पास आ जाती हो. मेरे से बातें करती हो, एक परछाई की तरह मेरे साथ साथ चलती हो. मेरे पूरे घर पर एक अधिकार सा जमा लेती हो. अकेले घरों में रहने पर शायद यूँ ही यादें परछाईं बनकर हमारे पीछे पीछे चलने लगती हैं. उनको रोकने वाला कोई नहीं होता. कोई बाउंड्री नहीं होती कि उन यादों को उन परछाइयों को रोक सके. वो परछाइयाँ तुम्हारे साथ रहती हैं, तुम उठते हो, बैठते हो, सोते हो, वो तुम्हारे साथ ही घर में मौजूद रहती हैं. तुम्हारे अलावा और कोई घर में होता है, तो ये परछाई भी दूर भाग जाती हैं, लेकिन जैसे ही तुम अकेले होते हो, ये परछाईं फिर से तुम्हारे साथ हो जाती हैं. कितनी बार सीढ़ियों पर, बालकनी पर खड़े होकर मैंने तुमसे बातें की हैं, बस तुम्हारे पास होने का एहसास भर होता था...कि तुम मेरे साथ खड़ी हो. जैसे उस रात हुआ था, मैं देर तक सो नहीं सका था...उठ कर अपने घर के बालकनी के पास आ गया, मुझे जाने क्यों ये भ्रम होने लगा कि तुम भी मेरे पास आकर खड़ी हो गयी हो. कितनी ही बातें की थी मैंने तुमसे. लोगों को ये बातें कहो तो तुम्हें पागल कह कर तुम्हारी बातों को हँसी में उड़ा देंगे. लेकिन मेरे साथ ऐसा ही होता है, तुम यूँ हीं मेरे साथ रहती हो हमेशा.
आधी रात का ही वो वक़्त भी होता है जब मुझे अजीब अजीब सपने भी आते हैं. उन सपनों का अर्थ क्या है ये मैं कभी समझ नहीं पाता. एक बार देखा था तुम्हें सपने में. मैं एक पुल पर खड़ा था. तुम पुल के दूसरे तरफ खड़ी थी. और वो पुल बीच से टूटा हुआ था. तुम तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं नज़र आ रहा था. नीचे गहरी खाई थी और मैं सोच रहा था कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे पास पहुँच जाऊँ, लेकिन कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था. दूसरे तरफ से तुम्हारी घबराई हुई आवाजें सुनाई दे रही थीं. तुम रो रही थी. मुझे अपने पास बुला रही थी. तुम कह रही थी... आ जाओ वरना मुझे सब ले जायेंगे हमेशा के लिए... तुमसे बहुत दूर. मैं नीचे उतरने की कोशिश करता हूँ, और तभी एक बहुत बड़ा सा धमाका होता है.. और मेरी नींद टूट जाती है. मैं बहुत घबरा जाता हूँ उस सपने से. पास पड़े अपने मोबाइल को उठाता हूँ, वक़्त देखता हूँ तो सुबह के चार बज रहे होते हैं. सोचता हूँ कि अकसर तुम्हारे सपने मैं इसी वक़्त क्यों देखता हूँ?
मुझे हमेशा ये लगता है कि जितना ज्यादा मैं इन सपनों से डर जाता हूँ या घबरा जाता हूँ उतना कभी किसी भयानक सपने से, किसी भूत प्रेत वाले सपने से मैं नहीं डरा. जब भी तुमसे जुदा होने की बात किसी सपने में देखता हूँ, तुम्हें खुद से दूर जाते हुए देखता हूँ तो मैं बेहद डर जाता हूँ. हालाँकि अब डरने जैसी कोई बात नहीं रही, तुम बहुत दूर जा चुकी हो. लेकिन अब भी मैं बेहद डर जाता हूँ ऐसे सपनों से.
हर शाम को मन में यूँहीं जाने कितनी बातें चलने लगती हैं. तुम्हारी कही बात याद आती है, कि तुम लिख लिया करो अपने मन में चल रही बातों को. तुम्हारे पास लिखने का हुनर है, तुम लिखकर खुद के मन को थोड़ा शांत कर सकते हो, लेकिन उनके बारे में सोचो जो लिख नहीं पाते अपने मन की बात, ना किसी से कह पाते हैं. वो बस घुटते रहते हैं अन्दर ही अन्दर. तुमने फिर कहा था, कुछ और न मिले लिखने को, कुछ समझ में ना आये क्या लिखना है, तो जितनी भी गालियाँ तुम्हें आती हैं(वैसे तो कम ही आती हैं), मुझे सुना देना. खूब गरिया देना मुझे, देखना तुम्हारा मन एकदम शांत सा हो जाएगा.