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इन दिनों मैं बहुत कुछ ऐसा सोचने लगा हूँ जो मैं नहीं चाहता कि तुम पढ़ो, कुछ रद्दी से पड़े पन्नों पर लिखकर उसे फाड़ कर फेक देता हूँ.... कभी हमारे बीच में की गयी कुछ अनकही बातों के सिरे को भी पकड़ो तब भी उससे नयी कोई बात नहीं निकलती... ससर गाँठ की तरह सारी पुरानी बातों के गिरहें खुलकर बस सीधा सन्नाटा बच जाता है... मैं फिर से ख़ानाबदोश होने लगा हूँ, दिन भर बेफालतू इधर उधर बौखलाया फिरता हूँ ... इंसान चाहकर भी अपनी परछाईयों से नहीं भाग सकता, शायद इसलिए मुझे अंधेरा अच्छा लगता है... किसी से नज़र चुराने की ज़रूरत नहीं है, खुद से खुद की बातों में खो जाना ही असीम सुख है... कितना अच्छा होता न अगर अंधेरा ही सच होता, इस तेज रौशनी में मेरी आखें चौंधिया जाती है, दिल में जलन होती है सो अलग... 

शाम को इस अंधेरे से कमरे में बैठकर अपने अंदर की रगड़ सुन रहा हूँ, दिमाग बार-बार दिल को कहता है आखिर ज़रूरत क्या थी इश्क़ करने की, अब भुगतो... और दिल चुपचाप खुद को एक कमरे में बंद कर लेता है, मुझे डर लगता है कहीं यूं अकेले रहते रहते मैं किसी बंद कमरे में तब्दील न हो जाऊँ... 

रात एक माचिस है, 
और तन्हा होना एक बारूद 
तेरी याद एक रगड़ है, 
तीनों गर मिल जाएँ 
तो मेरी धड़कन 
राख़ हो जाती है जलकर....

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